लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
मेरे प्रेमी
'प्रेम' शब्द, मेरे शैशव और कैशोर्य में निषिद्ध शब्द था। जैसे ही मैंने प्रेम करने की उम्र में कदम रखा, किशोर लड़के मेरी ओर मुड़-मुड़ कर देखने लगे। मेरा भी उन लड़कों को निहारने का मन करता था मगर उन दिनों प्रेम निषिद्ध था। मैं कुछ भले करूँ, मगर 'प्रेम' हरगिज़ न करूँ। हालाँकि फिल्मों में देखती हूँ-प्रेम! थियेटर में देखती हूँ-प्रेम! कहानी-उपन्यासों में पढ़ती हूँ-प्रेम! गानों में सुनती हूँ-प्रेम! हर कहीं प्रेम ही प्रेम है। लेकिन जीवन में प्रेम नहीं चलेगा। जो जितना प्रेमहीन जीवन गुजारे, वह उतना ही भलामानस होगा। इसी तरह इसी परिवेश में, मैं पली-बढ़ी और बड़ी हुई। चूँकि यह निषिद्ध चीज़ थी इसलिए प्रेम के प्रति शायद मेरी दिलचस्पी जाग उठी। चूँकि मैं प्रेम करने लगी इसलिए अब्बू की काफ़ी मार भी खाती थी। अब्बू मुझे चाबुक से पीटते थे, कमरे में बन्द कर देते थे, खाना-पीना बन्द कर देते थे। दिन-रात 'छात्रानाम् अध्ययनं तपः' की दुहाई देने वाले अब्बू ने यहाँ तक कि मेरा स्कूल-कॉलेज जाना तक बन्द कर दिया था।
किशोर उम्र में मुझे दो-एक लड़के बेहद अच्छे भी लगते थे! दूर-दूर से कभी-कभार उनसे आँखें टकराना, बीच-बीच में 'प्यार' का रुक्का, मेरी ज़िन्दगी को भरे रहता था। प्यार कैसे किया जाता है, यह मैंने अपने छोटू'दा से सीखा था। छोटूदा मुझसे आठ वर्ष बड़े थे। वे मुहल्ले की ही एक लड़की से इश्क करते थे। छोटू'दा उस लड़की को जो मुहब्बतनामा लिखते थे, मैं चोरी-चोरी उनके सारे ख़त पढ़ लेती थी। छोटू'दा जैसे ही घर से बाहर जाते थे, मैं उनकी टिन की बकसिया खोलती थी और चिट्ठियाँ निकाल लेती थी। टिन की बकसिया में अखबार बिछा कर, छोटू दा अपनी ढेरों चीजें उसी में सहेजे रहते थे। उनके तमाम ख़त, अखबार के नीचे रखे होते थे। हर दिन का खत उस बकसिया में जमा हो जाता था। छोटू दा को जब भी मौका मिलता था, वे उस लकड़ी की खिड़की से, सबकी नज़रों की ओट चिट्ठियाँ चालान कर देते थे। खैर इसके बाद भी छोटू'दा ने कई और लड़कियों से इश्क किया। उन लोगों को भी वे उसी किस्म के ख़त लिखा करते थे। वे डॉली पाल या गीता मित्र को कितना-कितना प्यार करते थे-उन खतों में इसका असाधारण बयान हुआ करता थो। उन तमाम ख़तों को पढ़ कर ही मैंने जाना कि प्रेम क्या होता है; दिल धड़कना क्या होता है; नींद-जगी रातें किसे कहते हैं। उन्हीं दिनों बड़े भइया की तोशक के नीचे रखी एडल्ट पत्रिका 'कामना' पढ़ कर सेक्स के बारे में मेरी जानकारी का श्रीगणेश हुआ।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं